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मंगलवार, 9 नवंबर 2010

भारत में 'माओवादी' प्रवृत्ति का उदय और उसकी वर्तमान भूमिका

अरिंदम सेन* 

इस समय,जब हम ये पंक्तियां लिख रहे हैं, माओवादी खेमे से लगातार बढ़ते अंत:पार्टी संघर्षों के संकेत मिल रहे हैं। ऎसी रिपोर्ट है कि गिरफ़्तारी के बाद माओवदी नेता कोबाड गांधी ने कहा हॆ कि वे खुद तथा कुछ दूसरे नेता पार्टी द्वारा अत्यधिक खून-खराबे के विरोधी हैं। लगभग इसी समय कोलकाता के आनंद बाज़ार पत्रिका समेत दूसरे दैनिक अखबारों ने भाकपा (माओवादी) के पोलितब्यूरो सदस्य किशनजी का विस्तृत बयान छापा है जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के बतौर बुद्धदेब भट्टाचार्य का स्थान ग्रहण करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। इसका तत्काल करारा विरोध माओवदी पार्टी के पश्चिम बंगाल राज्य-सचिव की दस्तखत से छपे एक पर्चे में किया गया। कुछ दूसरे सवाल भी राजनीतिक हल्कों में चर्चा में हैं। मसलन प.बंगाल में एक पुलिस अधिकारी के अपहरण ऒर लेन-देन के बाद उनकी रिहाई की क्या व्याख्या है? क्या यह सत्ताधारियों के साथ किसी समग्र बातचीत की संभावना की ज़मीन तैयार करने का संकेत हो सकता है? जबकि कोबाड गांधी की गिरफ़्तारी को कुछ ही समय हुआ है और एक ऎसी परिस्थिति में जबकि भूमिगत संगठनों पर राज्य ने हमले तेज़ किए हों, स्वयं पार्टी महासचिव गणपति का अचानक छोटे पर्दे पर दिखना (जिसका स्रोत पार्टी द्वारा जारी एक सी.डी.है) किस तरह का संकेत है? इन सब चीज़ों का योगफल क्या हो सकता है?
माओवाद पर टिप्पणी करने वालों ने उसे तमाम सतही तरीकों से या तो रूमानी रंग में पेश किया है, गौरवान्वित किया है या फिर उसे दैत्य बना कर प्रस्तुत किया है; ज़रूरी लेकिन यह है कि इस महत्वपूर्ण प्रवृत्ति का वैग्यानिक आकलन किया जाए ऒर उसके प्रति एक सही नज़रिया विकसित किया जाए। इस लेख में यह प्रस्तावित है कि भाकपा(माओवादी) को सबसे बेहतर एक अराजक-सैन्यवादी संगठन के बतौर समझा जा सकता है। हमारी समझ से यह आकलन तथाकथित माओवाद को न केवल उसकी वैचारिक जड़ों (अराजकतावाद) से समझता है, बल्कि साथ-साथ उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता या प्रतिफलन(सैन्यवाद) को भी सामने लाता है। यह बिलकुल साफ़ तब हो जाता है जब हम माओवाद की परिघटना को किसी अपरिवर्तनीय कोटि के बतौर नहीं, बल्कि एक वैचारिक-राजनैतिक प्रवृत्ति के बतौर समझने की कोशिश करते हैं जो कि दी हुई ऎतिहासिक अवस्था में एक खास तरीके से विकसित हुई ऒर एक खास दिशा की ओर अग्रसर है।



अराजकतावाद ऒर सर्वहारा का आदोलन: अंतर्राष्ट्रीय अनुभव

इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स असोसियेशन के दिनों से ही अराजकतावाद-- जो कि क्रांतिकारी लक्ष्यों की प्राप्ति की ज़रूरी शर्त के बतौर लम्बी चलने वाली जन-राजनैतिक कार्रवाइयों को नकारता है या उनकी उपेक्षा करता है, बार-बार मज़दूर वर्ग के आंदोलन में विघ्न डालने वाली प्रवृत्ति के रूप में सर उठाता रहा है। इस प्रवृत्ति के पहले और सबसे प्रभावशाली प्रस्तावकों में रूस के बाकुनिन थे, जिनका मानना था कि बूर्जुआ राज्य का खात्मा मज़दूर वर्ग का तात्कालिक कार्यभार है जिसे मज़दूरों की राजनीतिक पार्टी बनाने के ज़रिए नहीं, राजनीतिक संघर्षों के ज़रिए नहीं, बल्कि 'सीधी कार्रवाई' के ज़रिए हासिल करना है। एंगेल्स ने थियोडोर कूनो को लिखे पत्र (२४ जनवरी, १८७२) मे लिखा कि अराजकतवाअदी प्रचार " सुनने में अत्यधिक रैडिकल ऒर इतना सरल प्रतीत होता है। उसे पांच मिनट में ही ह्रदयंगम किया जा सकता है; यही कारण है कि बाकुनिन का सिद्धांत इटली और स्पेन में युवा वकीलों, डाक्टरों और दूसरे सिद्धांतकारों के बीच इतनी तेज़ी से लोकप्रिय हुआ है। लेकिन मज़दूर जनता इससे प्रभावित कभी भी नहीं हो सकेगी......."



बाक्स १. " हर धड़ा अनिवार्यत: और अपनी कट्टरता के बल-बूते, खास तौर पर उन क्षेत्रों में जहां वह नया है।.......पार्टी के मुकाबले कहीं ज़्यादा तात्कालिक सफ़लता हासिल करता है जबकि पार्टी वहां वास्तविक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती है, बगैर संयोगवश प्राप्त चीज़ों के। लेकिन दूसरी ओर कट्टरता बहुत दिन नहीं चला करती।" ( एंगेल्स का खत बेबेल के नाम: २० जून, १८७३)


मुख्यत: मार्क्स के प्रयासों को यह श्रेय जाएगा कि बाकुनिन ऒर उनके अनुयायी लम्बे संघर्ष के बाद इंटरनेशनल से बहर किए गए। इस ऎतिहासिक पराजय के बाद, अराजकतावाद के लिए अपने शुद्ध, आदिम रूप में मज़दूर वर्ग के आंदोलन की शाखा के बतौर फिर से प्रकट होना संभव नहीं रह गया। उदाहरण के लिए रूस मे एनार्को-सिंडिकलिस्ट ने 'क्षुद्र कार्यों' को नकारा, खास तौर पर संसदीय मंच के इस्तेमाल को; उनका मानना था कि मज़दूरों को अनुशासित सर्वहारा पार्टी के बगैर ही ट्रेड यूनियनों के ज़रिए कारखानों और सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहिए। दूसरी अति-वाम प्रवृत्तियां भी अराजकतावाद के साथ घुल-मिल कर ' निम्न -पूंजीवादी, अर्द्ध-अराजकतावादी क्रांतिकारितावाद' की अनेक रंग-बिरंगी प्रवृत्तियों को पैदा करती हैं। लेनिन ने इन प्रवृत्तियों से अपने जीवन भर चलनेवाले संघर्षों का सार 'वामपंथी कम्यूनिज़्म- एक बचकाना मर्ज़' शीर्षक प्रबंध में प्रस्तुत कर दिया है।

चीन में भी रूस की ही तरह कम्यूनिस्ट पार्टी को लगातार 'दो मोर्चों पर संघर्ष' चलाना पड़ा-- यानी 'दक्षिण' और 'वाम' दोनों तरह के अवसरवाअदों के खिलाफ़। दूसरे शब्दों में 'दक्षिणपंथी निराशावाद' और 'वामपंथी उतावलेपन' दोनों के खिलाफ़। 'पार्टी में गलत विचारों को दुरुस्त करने के बारे में' शीर्षक लेख में माओ ने ' विभिन्न गैर-सर्वहारा विचारों' के बारे में लिखा जिनमें पहला और सबसे प्रमुख विचार गैर-सर्वहारा विचार है-- ' विशुद्ध सैन्यवादी दृष्टिकोण'। माओ के शब्दों में यह दृष्टिकोण "सैन्य मामलों और राजनीति को एक दूसरे के खिलाफ़ समझता है और यह मानने से इनकार करता है कि सैन्य मामले राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के तरीकों में महज एक तरीका है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि 'अगर आप सैन्य दृष्टि से अच्छे हैं तो आप राजनीतिक तौर पर भी अच्छे हैं'--यह कहना एक कदम और आगे जाकर सैन्य मामलों को राजनीति के ऊपर नेतृत्वकारी हैसियत प्रदान करने जैसा है.......इसका स्रोत शुद्धत: सैन्यवादी दृष्टिकोण है......निम्न राजनीतिक स्तर.है.....भाड़े के सैनिकों जैसी मानसिकता है.......सैन्य ताकत में अतिरिक्त विश्वास और जनता की ताकत में विश्वास की कमी है.... " (ओर मेरा)

माओ ने पराए विचारों के अंतर्गत 'आत्मगत चिंतन', 'सांगठनिक अनुशासन के प्रति अवहेलना', ' घुमंतू विद्रोहियों जैसी विचारधारा', और ''षड़्यंत्रवादी तरीके से अचानक हमले के ज़रिए क्रांति करने की मानसिकता के अवशेषों (पुचिज़्म)' को भी इस संदर्भ में लक्ष्य किया। पुचिज़्म माओ के अनुसार वह "अंधी कार्रवाई है जो आत्मगत और वस्तुगत परिस्थितियों की अवहेलना के साथ की जाती है", उन्होंने आगे जोड़ा कि ऎसी कार्रवाइयों का " सामाजिक उदगम.....लम्पट सर्वहारा ऒर निम्नपूंजीवादी विचारधारा की मिलावट में निहित है।"

इसीतरह अलग अलग समय में अलग अलग तरीके से "निम्नपूंजीवादी क्रांतिवाद, जो अराजकतावाद का पुट लिए रहता है, या उससे प्रभाव ग्रहण करता है"(लेनिन, 'वामपंथी कम्यूनिज़्म:एक बचकाना मर्ज़') दूसरी पराई प्रवृत्तियों से मिलकर "पहले से अपरिचित पोशाक और परिवेश में कुछ नए रूपों" में उभरता है। (वही) दूसरे शब्दों में अराजकतावाद का जीवाणु अलग अलग सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों और इतिहास की अवस्थाओं में खुद को परिवर्तित करके अनेक प्रकार के जटिल रूप अख्तियार करता है, लगातार नए से नए और पेचीदा उपभेदों में प्रकट होता रहता है--काफ़ी कुछ एच १एन १ या स्वाइन फ़्लू के जीवाणु की तरह जिसे पहचानना और जिससे मुक्त होना कठिन होता है।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

एन. एस.यू. आई. और कांग्रेस का परिवारवाद

अभी कुछ दिन पहले एक रेडियो पर एक विज्ञापन सुना..... विज्ञापन एन. एस.यू. आई. से जुड़ा  हुआ था.... जिसमे युवक कोंग्रेस के सदस्यों को और सभी युवाओं को राहुल गाँधी के नेतृत्व में चलने के लिए प्रोत्साहित  किया जा रहा था.... विज्ञापन तो असरदार था....पर... एक बात मन को झकझोरे जा रही थी......इसीलिए अपने मन में उपजे कुछ विचारों  को आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ .
           
            
   एन. एस.यू. आई एक ऐसा छात्र संगठन है जो वर्षों से छात्र राजनीती में नए आयाम गढ़ता आया है....... इतने  वर्षों  में एन. एस.यू. आई . ने तमाम ऐसे नेता देश को दिए है जो छात्र राजनीती का सफ़र तय करके राष्ट्रीय राजनीती में अपनी एक अलग जगह बनाई है ....पर ये बेचारे परिवारवाद की राजनीती के चलते पार्टी में केवल जी हुजूरी का काम ही  पा सके है .... स्तिथि पहले भी वही थी..... और अब भी वही है...... पार्टी में केवल नेहरु गाँधी परिवार की ही चलती है.... बाकि का काम केवल हाथ बांधे सर नीचे किये आज्ञा का पालन करना है..... अगर किसी कोंग्रेसी को मेरी इस बात से ऐतराज़ है तो वह बेधड़क मुझसे कह सकता है.... पर कहने से पहले ये जरूर सोच ले की इतने वर्षों तक राजनीतिक अनुभव लेने के बाद वह नौसिखिये राहुल के नेतृत्व  में क्यों चलाना चाहता है ? क्या एन. एस.यू. आई. इतने वर्षों में एक भी ऐसा नेता देश को दे सका जो जो आगे बढ़कर पार्टी का संचालन करे और फिर देश की बागडोर सम्हाल सके ? मै केवल एक नेता की बात कर रहा हूँ ....केवल एक नेता की..... एन. एस.यू. आई. में क्षमता बहुत है..... जोश बहुत है ...... पर फिर वही कहानी या हकीकत जिसको खुले तौर पर मानने को कोई भी कोंग्रेसी तैयार नहीं होगा.... वह है परिवारवाद ..... मै जो कह रहा हूँ... अगर वो सच नहीं है... तो फिर कुछ उदाहरण आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ.... जो लोगों की आँखों को खोलने में सही  साबित होगा.....अर्जुन सिंह एक ऐसा नाम जिसकी भव्यता और साफगोई किसी से छुपी नहीं है.... जिनकी छवि हरदम एक साफ़ सुथरे नेता          की रही है.....छात्र राजनीती का सफ़र तय करके राष्ट्रीय राजनीती में आये पर परिवारवाद  ने उन्हें बहुत आगे जाने नहीं दिया..... यू पी ऐ    की सरकार में उन्हें मानवसंसाधन और विकास मंत्रालय का कार्य भार सौप दिया गया..... पर यू पी ए के दुसरे कार्यकाल में जब भोपाल गैस त्रासदी की बात सामने आई तो सारा दोष अर्जुन सिंह पर डाल दिया गया..... क्यों ...क्योंकि अगर अर्जुन  सिंह पर ये दोष न डाला जाता तो राजीव गाँधी की असलियत देश के सामने आ जाती..... राजीव गाँधी जी पूज्य बने रहे इसके लिए अर्जुन सिंह जी को बलि का बकरा बना दिया गया.... जो राजीव गाँधी कांग्रेस और देश में पूज्य है वही राजीव गाँधी भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदार है... वही राजीव गाँधी  एंडर्सन को को भागने जिम्मेदार है..... वही रजीव गाँधी बोफोर्स घोटाले के नायक है.....हिंदुजा बंधुओ को  और इटली के बिचौलिए  क्वात्रोची को भगाने के का भी श्रेय इन्ही परम पूज्य राजीव गाँधी को जाता है....यहाँ भी कोई पार्टी कार्यकर्त्ता परिवार के विरुद्ध कुछ भी  नहीं बोल सका और न हे भविष्य में कभी बोल सकता है..... मनीष तिवारी कांग्रेस में है... छात्र राजनीती से वह भी यहाँ तक पहुचे है पर उनका काम केवल यही है की वह प्राइम टाइम में परिवार का गुडगान  करते है और राहुल बाबा की जय बोलते है..... अभिषेक मनु सिंघवी , रीता बहुगुड़ा जोशी अदि ऐसे अनेक नेता है जो इस परिवारवाद  की राजनीती का शिकार है... मै कहता हूँ की राहुल ही  क्यों है कांग्रेस से  अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार कोई अन्य कांग्रेसी क्यों नहीं है ..... इस छात्र संगठन को अब अपने हितों के लिए लड़ना  होगा..... अपने अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करना होगा.... परिवाद की राजनीती को खत्म करने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है..... और एन. एस.यू. आई. ही  वह छात्र संगठन है जो इस तानाशाही राजनीती को खत्म  करने के लिए पहला कदम उठा सकता है.....तो कमर कस कर अपने अधिकारों को पाने के लिए तैयार हो जाइये ...और उखड फेकिये इस परिवारवाद  की ओछी राजनीती को....

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

टूटता दिख रहा कुठियाला का तिलिस्म

यह लेख माखनलाल पत्रकारिता विश्विद्यालय भोपाल में प्रसारण पत्रकारिता के छात्र "भूपेन्द्र पाण्डे " द्वारा लिखा गया है-


माखनलाल में रहना है तो हमसे मिलकर चलना है , कुठियाला मुर्दाबाद , कुठियाला के कार्यकाल की जाँच हो , कर्मचारी एकता जिंदाबाद , जो हमसे टकराएगा चूर चूर हो जायेगा हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है । ये नारे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल में आज शिक्षक कर्मचारी और अधिकारी जोर जोर से चिल्लाकर लगा रहे थे और इन्ही नरो को तख्ती प़र लिख कुलपती के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे । विश्वविद्यालय के कुलपति बी० के० कुठियाला की नियुक्ति और पद सँभालने के कुछ दिन बाद से ही उन पर अनके आरोप लगाये जारहे थे कुछ लोग तो तो इनकी नियुक्ति पर भी सवालिया निशान लगाते हुए कहते है की इसके पीछे बहुत बड़ी राजनीति है और इसमें इनका संघी होना बहुत काम आया है इनने भी यहाँ पहुचते ही सबसे पहले विश्वविद्यालय के लैटर पैड का रंग बदल कर भगवा रंग दे दिया तभी से लोग कयास लगा रहे थे की अब पत्रकारिता विश्वविद्यालय का भगवाकरण होने वाला है ।
तब से आज तक कुलपति जी के सारी नीतियों को चुप चाप मानता चला आ रहा प्रशासन और कर्मचारियों के सब्र का बांध आज टूट ही गया हड़ताल और प्रदर्शन का कारण पता करने पर कर्मचारी संघ के अध्यक्ष अर्जुन लाल गोहरे ने बताया की विश्वविद्यालय तेलंगा के कार्यालय में १०० से अधिक कर्मचारी टास्क पर नियुक्त है इन को न तो परमानेंट किया जा रहा न इनके वेतन में कोई वृद्धी की जा रही है , खाली पड़े पदों के भर्ती का आदेश होने के बाद भी इसे भरा नहीं जा रहा है इन्होने मांग की है की पिछले लगभग १० वर्षो से संस्था को ३ से ४ हज़ार रुपयों में अपनी सेवा दे रहे कर्मचारियों को एक सरल प्रक्रिया के तहत नियमित किया जाये कुलपति पर आरोप लगते हुए इन्होने कहा कि ये बिना किसी को कोई जानकारी दिए गुपचुप तरीके से शासन को पत्र लिखकर रजिस्ट्रार और परिक्षानियांत्रक के पद पर आपने आदमियों को बैठना चाहते है जबकि वर्तमान में इन पदों को देख रहे डा० श्रीकांत सिंह और राजेश पाठक बढ़िया काम कर रहे है । कर्मचारियों की मांग है डा० श्रीकांत सिंह रजिस्ट्रार के पद की योग्यता रखते है और इन्हें ही इस पद पर रखा जाये क्योकि ये लम्बे समय से हमारे बीच में है और हमारी समस्यायों को भलीभांति समझ सकते है । वर्तमान में आप प्रसारण पत्रकरिता विभाग के एच० ओ० डी० के पद पर रहते हुए भी अपनी जिम्मेदारी को बहुत अच्छे ढंग से निभा रहे है । इनका कहना है श्री कुठियाला के आने के बाद यहाँ भ्रस्टाचार फैल गया है यू० टी० डी० सेंटर के संचालको की ओर से शिकायत आ रही है की कुलपति द्वार बनाई तीन सदस्यीय टीम घूस लेकर सेंटर को मान्यता दे रही है । कर्मचारियों ने कहा की अभी कुछ दिन पहले विश्वविद्यालय के काम से जा रहे 3 कर्मचारी की रात में दुर्घटना से दर्दनाक मौत हो गयी लेकिन उनके परिवार को कोई विशेष आर्थिक सहायता नही दी गयी , इन्हें जल्द सहयता दिया जाये और इनके परिवार से एक एक सदस्य की अनुकम्पा पर नियुक्ति की जाये । सब ने एक सुर में कुलपति के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए कहा की यदि जल्दी हमारी मांगे पूरी नहीं हुयी तो हम गांधवादी ढंग से हड़ताल करेंगे और लम्बी लडाई लड़ेंगे । यह था आज के तजा घटनाक्रम का हल कुछ दिन पीछे चले तो पता चलता है की कुलपति जी आते ही केवल सत्ता आपने हाथ में लेना चाहते थे इसके लिए आप अपने मन से कानून पर कानून बनाते रहे और लोग आँख बंद कर मानते रहे चाहे वाह शुराक्षकर्मियो की संख्या घटना हो या कुछ ओर परिवर्तन की बयार कुछ ऐसे चली की विश्वविद्यालय के पानी के सहारे जीने वाले लडको को १० बजे के बाद विश्वबिद्यालय में घुसना मना कर दिया गया यहाँ पढने वाले लड़के अपने घर से ज्यादा समय यहाँ बिताते थे यहाँ पर विभिन्न विषयों पर रात में घंटो बहस होती रहती थी पर अब नहीं । अभी हद नहीं हुयी इस छोटे से विश्वविद्यालय में १४ नए कोर्स शुरू किये गए जबकी पहले से चल रहे कोर्सो के लडको का भविष्य अभी तक अँधेरे में है इनके प्लेसमेंट की कोई ब्यवस्था नहीं है इस वर्ष निकले बड़ी संख्या में छात्र बेरोजगार घूम रहे है । कुलपति के सामने छात्रो ने गुहार लगाई थी पर कोई सुनवाई नहीं हुयी इन छात्रो में कई ऐसे है जिन्होंने अपना कोर्स लोन लेकर किया है।
आपने विश्वविद्यालय में प्रवेश की परम्परागत प्रेवश परीक्षा को समाप्त कर मेरिट सिस्टम लागू किया जिसका परिणाम यह रहा की ४ लिस्ट निकलने के बाद भी कई विभागों की सीटे खाली पढी है। जो नए कोर्स शुरू किये गए उनमे कुछ में तो कोई आवेदन ही नहीं आया ओर कुछ में २य ३ छात्रो का प्रवेश हुआ इसके आलावा पढ़ाने के लिए शिक्षक नदारद है । कुल मिलकर यहाँ छात्रो के भविष्य के साथ गन्दा मजाक करने की कोशिश की जा रही है पर अब तक सब चुप थे अब जब बात आपने पर आयी तो लोगो ने चिल्लाना शुरू किया खैर आवाज बुलंद है ओर लगता है कि आब कुलपति का तिलिस्म टूट रहा है वैसे अभी तक यह विश्वविद्यालय राम भरोसे चल रहा है कदम कदम पर भ्रस्टाचार है देखना यह होगा कि कुछ बदल पता है या सबके मुह ,बंद कर दिए जायेंगे ।

शुक्रवार, 25 जून 2010

यायावर....................

मेरे द्वारा लिखी हुई ये कविता किसी साहित्यिक योगदान के लिए नहीं है , अपितु केवल एक भावना पैदा करती है उस व्यक्ति में जो तमाम तरह की बुराइयों में फंस कर अपने मूल लक्ष्य से भटक गया हो और एक आवाज़ चाहता हो जो उसे नींद से जगा दे ...........

'ये कविता एक आवाज़ है' .............








यायावर था मै कभी ,

ठहर गया हूँ अभी अभी

जैसे बाँध के सामने रुक जाती है कोई नदी ,

कुछ क्लेश था मन में बचा अभी

क्यों बंध सीमा में गया अभी

सत्यान्वेषण की राह में बाधाएं आती है कितनी

यह ज्ञात हुआ है मुझे अभी

मुझको दिखता है सत्यांश उस बंधन के कोने से कही

मुझमे दृढ़ता मुझमे भुजबल मुझ में नवयौवन का प्रवाह ,

मै भरा हुआ उत्साह से था उस बंधन ने जाना न अभी

यह बंधन कुटिल बेड़ियों का लालच की जिसमे गाँठ पड़ी

जब मैंने वहां प्रहार किया बंधन टूटे गांठे जा उडी

फिर चल पड़ा मै उधर

जिसको लक्ष्य बनाया था कभी

तोड़ के साड़ी सीमओं को निकल पड़ा हूँ अभी अभी

यायावर हूँ मै अभी .....................

यायावर हूँ मै अभी ...............................


शनिवार, 12 जून 2010

अब पैरों की ताल पर नाचेगी बॉल......

अलग -अलग महाद्वीपों से ३२ सर्वश्रेष्ट टीमे अपने धुरंधर खिलाडियों की सेना के साथ दक्षिण अफ्रीका रवाना हो चुकी है। पूर्वजों की धरती पर पूर्वजो के जितना ही पुराना खेल खेला जायेगा। दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल जिसका इतिहास बहुत ही पुराना है , अब उसका जादू पूरी दुनिया के सर चढ़ कर बोलेगा। ३१ दिन ३२ टीमे रोज एक दुसरे से घमासान करती नज़र आयेंगी

२०४ देशों में सिर्फ ३२ चोटी की टीमे ही इस विश्व कप में भाग ले सकेंगी। दक्षिण अफ्रीका के शानदार स्टेडियमो सारे मैच खेले जायेंगे । जहा पर विश्व कप में शामिल हुए देश अफ्रीकी धरती पर अपनी शक्ति उर्जा और कौशल को आजमाएंगे। एक तरफ जहा पूरा दक्षिण अफ्रीका फुटबालके इस महाकुम्भ को बेहद करीब से देखेगा वही दुनिया के सारे देश इसे टी वी या इन्टरनेट के माध्यम से देखेंगे ।

इस बार इटली के पास खिताब बचाने की चुनौती है वहीं बाकी देश इस कप को हासिल करने में एडी चोटी का जोर लगा देंगे। यदि खिताब के दावेदारों पर नज़र डाले तो स्पेन , इटली ,ब्राजील और इंग्लैंड इस खिताब के प्रबल दावेदार नज़र आ रहे हैं। वैसे इस बार के फीफा विश्व कप में कई उलटफेर देखने को मिले तो ताज्जुब मत करियेगा। क्यों की इस बार कुछ टीम ऐसे है जिनकी तैयारी अब तक किसी ने नहीं देखी है. उ. कोरिया ऐसी ही टीमों में से एक टीम है. १९६६ के बाद पहली बार शामिल हुई उ. कोरिया की टीम आत्मविश्वास से भरी हुई है। मजेदार बात ये है की उ. कोरिया का खेल अब तक किसी ने नहीं देखा है. उ. कोरिया की टीम अपने देश में किसी अज्ञात स्थान पर ६ माह की कड़ी ट्रेनिंग लेकर अफ्रीका पहुची है. और तो और अभ्यास मैच में भी किसी बाहरी को आने की इज़ाज़त नहीं थी. हर बार की तरह इस बार भी खिलाडियों का चोटिल होना एक समस्या बनी हुई है. एक तरफ जहां जर्मन कप्तान माइकल बालाक चोट के चलते विश्व कप से बाहर है वहीं दूसरी तरफ किक के जादूगर इंग्लैंड डेविड बेकहम भी चोट के चलते केवल दर्शक दीर्घा में नज़र आएंगे. जुबलानी पर चली जुबान ....... "जुबलानी" जी हाँ ये नाम है इस बार के विश्व कप में प्रयोग में लायी जा रही बाल का । जुबलानी का मतलब है "उत्सव मनाना।" पर कई देशों के गोल कीपर इसे देख कर बहुत तनाव में हैं. कहा जा रहा है की इस गेंद में ग्रिप नहीं है और ये हवा में सामान्य से अधिक स्विंग हो रही है जिसके कारण ये पता करना मुशिकल हो जाता है की गेंद कहा जा रही है.
निशाने पर हैं रिकार्ड ....... फीफा विश्व कप में सर्वाधिक गोल करने का रिकार्ड ब्राजील के धुरंधर स्ट्राइकर रोनाल्डो के नाम है , जिन्होंने तीन विश्व कप के १९ मैचों में १५ गोल किये है। रोनाल्डो का रिकार्ड इस बार दांव पर है क्यों की जर्मनी के स्टार खिलाडी मिरोस्लाव क्लोस रोनाल्डो के इस खिताब के काफी करीब है. क्लोस के दो विश्व कप में ११ गोल हैं और इस बार के विश्व कप में क्लोस ज़रूर इस रिकार्ड को तोडना चाहेंगे . ज़ाहिर है ऐसे में बेहतरीन फ़ुटबाल देखने का नज़ारा मिलेगा .

भूमण्डलीकरण की कृषि...

भारत एक कृषि प्रधान देश है। केवल इतना कहने भर से ही भारत कृषि में हालत सुधरने वाली नहीं है। भारतीय कृषि की हालत दिन पर दिन भयावह होती जा रही है। कुछ लोगो का मानना है की इस दुर्दशा के लिए भारतीय किसान खुद जिम्मेदार है। ऐसे हे लोगो के मुखार्विन्दों से अक्सर यह सुनने को मिलता है की भारतीय किसानो को भूमण्डलीकरण के इस दौर में यदि टिके रहना है तो उन्हें प्रतिस्पर्धी होना होगा , पैदावार मे उसमे वृद्धी ही इस पर्तिस्पर्धा में बने रहने का एक मात्र रास्ता है। आज कल के सम्मेलनों में आप वैज्ञानिको से या अर्थशास्त्रियों से यह अक्सर सुनते पाएंगे की किस तरह उत्पादकता ही कृषि समुदाय के अस्तित्व को कायम रखने में निर्णायक साबित होती है। जो किसान अपनी उत्पादकता नहीं बढ़ा सकते वह न सिर्फ हाशिये पर चले जायेंगे बल्कि भीरे धीरे उनका अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा या वे कृषि जगत से ही बाहर हो जायेंगे। कम उत्पादकता के लिए भारतीय किसानो के ऊपर अक्षम होने का लेबल चिपका दिया जाता है , और यह लेबल कृषि व्यापर उद्योग को सरकारी मदद दिलाने वाली नीतियों में बदलाव को जायज़ ठहराने के लिए काफी है। हालाँकि यह बहस भ्रामक है की भारतीय किसान अक्षम है। सच तो है की भारतीय किसान विश्व के सबसे सक्षम किसानों में से एक है। वास्तव में, भारतीय किसान किस तरह अपनी उत्पादकता को बढ़ा सकता है जबकि उसके पास महज़ दो और तीन एकड़ भूमि हो , तब वह साल दर साल उपज बढ़ाएगा या अपने परिवार का भरण - पोषण करेगा। क्या यह चुकाने वाला तथ्य नहीं है की औसत भारतीय किसान १।४ हेक्टयर कृषि योग्य भूमि पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है वहीं अमेरिका में एक किसान के पास केवल अपनी गाय का पेट भरने के लिए लग्भाक १० हेक्टेयर की जमीन प्राप्त है। किसी उन्नत किसान से यदि आप १।४ हेक्टेयर भूमि पर खेती करने को कहेंगे तो वह आपके ऊपर हंसेगा। वास्तविकता में विकसित देशों में किसान जमीन के छोटे- छोटे टुकड़ों पर खेती करने की बात सोच भी नहीं सकता।
सरकार का यदि यही रवैया रहा तो देश के न जाने कितने और जिले विदर्भ और बुंदेलखंड बन जायेंगे। इसे एक विरोधाभास ही कहा जायेगा की जिस सरकार ने कभी जमींदारी उन्मूलन जैसा कदम उठाया था आज वही सरकार गाँव में फिर से महाजनी व्यवस्था को लागु करने की बात सूच रही है। विदर्भ या बुंदेलखंड या देश के किसी भी कोने में हो रही किसानो की आत्महत्याओं ने ही ग्रामीद इलाकों में क़र्ज़ मिलने के सवाल को प्रमुखता से उभरा है। इसी के फलस्वरूप रिजर्व बैंक ने जोहल कार्य समीति का गठन किया था जिसमे बैंक मुश्किल में जी रहे किसानो की परेशानियों का अध्ययन किया जाना तय है। ज़रा सोचिये कमेटियां बनाकर किसानो का भला किस प्रकार किया जा सकता है ?
रहत पैकेज देकर कितनो दिनों तक किसानो पर एहसान किया जायेगा ? श्री लाल शुक्ल द्वारा लिखे राग दरबारी की एक लाइन है की "सूखा और अकाल सरकारी अफसरों के भाग्य से आता है ।" अधिकारीयों के पास पैकेज के प्रस्ताव बनाने का काम राहत पहुँचाने से बड़ा काम हो गया है।
कुछ बरस पहले तक बुंदेलखंड के बारे में एक शब्द भी ना बोलने वाले आज वह दिन रात रैलियाँ कर रहे है । पैकेज दिलाने की होड़ मची हुई है। लेकिन उसके बाद भी यहाँ की मूल समस्या की जड़ में जाने की ज़रुरत किसी को महसूस नहीं हो रही है । सच तो ये है की हमें खासकर किसानो को राज नेताओं से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए । क्यूंकि अपने रानीतिक स्वार्थ के मेल में सभी पार्टियां एक है । सरकार किसानो की सब्सिडी के बारे में सोचना भी नहीं चाहती है। विकसित देशों के किसान दक्ष इसलिए है क्यूंकि वहा पर उन्हें साल दर साल भारी सब्सिडी मिल जाती है। कपास उत्पादन को ही ले लीजिये अमेरिका में करीब बीस हजार कपास उत्पादक किसान है , जिनके द्वारा हर साल लगभग चार अरब डालर मूल्य का कपास पैदा किया जाता है। ये किसान कपास का उत्पादन बंद ना करे इस लिए अमेरिकी सरकार अपने राजकोष से लगभग साढ़े चार अरब डालर से अधिक सब्सिडी बांटती है। जिसके फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कपास का मूल्य ४५% तक गिर जाता है , नतीजतन विदर्भ के किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती है । भारत के लिए तात्कालिक कदम यही होना चाहिए की आने वाले विश्व व्यापार संगठन के सम्मलेन में विकास संबंधी समझौते के अंतिम रूप लेने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए की ओ ई सी डी के देश अपने यहाँ दी जाने वाली सब्सिडी को पूरी तरह ख़तम करें ।
यदि हमारे राजनेता इतना भी करने में कामयाब नही हो पाते है तो इसे किसानों का और देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा , और हमारे पास केवल राजनैतिक आरोप - प्रत्यारोप के अलावा और कुछ भी नहीं बचेगा । फिर हमारे पास केवल यही कहने को बचेगा -
विनोद दास
" सख्त मिटटी को नरम बनाते -बनाते ,
जिन हाथों में आज पड़ गई है गाँठ
हवा में हिल रहे है उनके हाथ
गेहूं की बालियों की तरह । "