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शुक्रवार, 25 जून 2010

यायावर....................

मेरे द्वारा लिखी हुई ये कविता किसी साहित्यिक योगदान के लिए नहीं है , अपितु केवल एक भावना पैदा करती है उस व्यक्ति में जो तमाम तरह की बुराइयों में फंस कर अपने मूल लक्ष्य से भटक गया हो और एक आवाज़ चाहता हो जो उसे नींद से जगा दे ...........

'ये कविता एक आवाज़ है' .............








यायावर था मै कभी ,

ठहर गया हूँ अभी अभी

जैसे बाँध के सामने रुक जाती है कोई नदी ,

कुछ क्लेश था मन में बचा अभी

क्यों बंध सीमा में गया अभी

सत्यान्वेषण की राह में बाधाएं आती है कितनी

यह ज्ञात हुआ है मुझे अभी

मुझको दिखता है सत्यांश उस बंधन के कोने से कही

मुझमे दृढ़ता मुझमे भुजबल मुझ में नवयौवन का प्रवाह ,

मै भरा हुआ उत्साह से था उस बंधन ने जाना न अभी

यह बंधन कुटिल बेड़ियों का लालच की जिसमे गाँठ पड़ी

जब मैंने वहां प्रहार किया बंधन टूटे गांठे जा उडी

फिर चल पड़ा मै उधर

जिसको लक्ष्य बनाया था कभी

तोड़ के साड़ी सीमओं को निकल पड़ा हूँ अभी अभी

यायावर हूँ मै अभी .....................

यायावर हूँ मै अभी ...............................


शनिवार, 12 जून 2010

अब पैरों की ताल पर नाचेगी बॉल......

अलग -अलग महाद्वीपों से ३२ सर्वश्रेष्ट टीमे अपने धुरंधर खिलाडियों की सेना के साथ दक्षिण अफ्रीका रवाना हो चुकी है। पूर्वजों की धरती पर पूर्वजो के जितना ही पुराना खेल खेला जायेगा। दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फुटबाल जिसका इतिहास बहुत ही पुराना है , अब उसका जादू पूरी दुनिया के सर चढ़ कर बोलेगा। ३१ दिन ३२ टीमे रोज एक दुसरे से घमासान करती नज़र आयेंगी

२०४ देशों में सिर्फ ३२ चोटी की टीमे ही इस विश्व कप में भाग ले सकेंगी। दक्षिण अफ्रीका के शानदार स्टेडियमो सारे मैच खेले जायेंगे । जहा पर विश्व कप में शामिल हुए देश अफ्रीकी धरती पर अपनी शक्ति उर्जा और कौशल को आजमाएंगे। एक तरफ जहा पूरा दक्षिण अफ्रीका फुटबालके इस महाकुम्भ को बेहद करीब से देखेगा वही दुनिया के सारे देश इसे टी वी या इन्टरनेट के माध्यम से देखेंगे ।

इस बार इटली के पास खिताब बचाने की चुनौती है वहीं बाकी देश इस कप को हासिल करने में एडी चोटी का जोर लगा देंगे। यदि खिताब के दावेदारों पर नज़र डाले तो स्पेन , इटली ,ब्राजील और इंग्लैंड इस खिताब के प्रबल दावेदार नज़र आ रहे हैं। वैसे इस बार के फीफा विश्व कप में कई उलटफेर देखने को मिले तो ताज्जुब मत करियेगा। क्यों की इस बार कुछ टीम ऐसे है जिनकी तैयारी अब तक किसी ने नहीं देखी है. उ. कोरिया ऐसी ही टीमों में से एक टीम है. १९६६ के बाद पहली बार शामिल हुई उ. कोरिया की टीम आत्मविश्वास से भरी हुई है। मजेदार बात ये है की उ. कोरिया का खेल अब तक किसी ने नहीं देखा है. उ. कोरिया की टीम अपने देश में किसी अज्ञात स्थान पर ६ माह की कड़ी ट्रेनिंग लेकर अफ्रीका पहुची है. और तो और अभ्यास मैच में भी किसी बाहरी को आने की इज़ाज़त नहीं थी. हर बार की तरह इस बार भी खिलाडियों का चोटिल होना एक समस्या बनी हुई है. एक तरफ जहां जर्मन कप्तान माइकल बालाक चोट के चलते विश्व कप से बाहर है वहीं दूसरी तरफ किक के जादूगर इंग्लैंड डेविड बेकहम भी चोट के चलते केवल दर्शक दीर्घा में नज़र आएंगे. जुबलानी पर चली जुबान ....... "जुबलानी" जी हाँ ये नाम है इस बार के विश्व कप में प्रयोग में लायी जा रही बाल का । जुबलानी का मतलब है "उत्सव मनाना।" पर कई देशों के गोल कीपर इसे देख कर बहुत तनाव में हैं. कहा जा रहा है की इस गेंद में ग्रिप नहीं है और ये हवा में सामान्य से अधिक स्विंग हो रही है जिसके कारण ये पता करना मुशिकल हो जाता है की गेंद कहा जा रही है.
निशाने पर हैं रिकार्ड ....... फीफा विश्व कप में सर्वाधिक गोल करने का रिकार्ड ब्राजील के धुरंधर स्ट्राइकर रोनाल्डो के नाम है , जिन्होंने तीन विश्व कप के १९ मैचों में १५ गोल किये है। रोनाल्डो का रिकार्ड इस बार दांव पर है क्यों की जर्मनी के स्टार खिलाडी मिरोस्लाव क्लोस रोनाल्डो के इस खिताब के काफी करीब है. क्लोस के दो विश्व कप में ११ गोल हैं और इस बार के विश्व कप में क्लोस ज़रूर इस रिकार्ड को तोडना चाहेंगे . ज़ाहिर है ऐसे में बेहतरीन फ़ुटबाल देखने का नज़ारा मिलेगा .

भूमण्डलीकरण की कृषि...

भारत एक कृषि प्रधान देश है। केवल इतना कहने भर से ही भारत कृषि में हालत सुधरने वाली नहीं है। भारतीय कृषि की हालत दिन पर दिन भयावह होती जा रही है। कुछ लोगो का मानना है की इस दुर्दशा के लिए भारतीय किसान खुद जिम्मेदार है। ऐसे हे लोगो के मुखार्विन्दों से अक्सर यह सुनने को मिलता है की भारतीय किसानो को भूमण्डलीकरण के इस दौर में यदि टिके रहना है तो उन्हें प्रतिस्पर्धी होना होगा , पैदावार मे उसमे वृद्धी ही इस पर्तिस्पर्धा में बने रहने का एक मात्र रास्ता है। आज कल के सम्मेलनों में आप वैज्ञानिको से या अर्थशास्त्रियों से यह अक्सर सुनते पाएंगे की किस तरह उत्पादकता ही कृषि समुदाय के अस्तित्व को कायम रखने में निर्णायक साबित होती है। जो किसान अपनी उत्पादकता नहीं बढ़ा सकते वह न सिर्फ हाशिये पर चले जायेंगे बल्कि भीरे धीरे उनका अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा या वे कृषि जगत से ही बाहर हो जायेंगे। कम उत्पादकता के लिए भारतीय किसानो के ऊपर अक्षम होने का लेबल चिपका दिया जाता है , और यह लेबल कृषि व्यापर उद्योग को सरकारी मदद दिलाने वाली नीतियों में बदलाव को जायज़ ठहराने के लिए काफी है। हालाँकि यह बहस भ्रामक है की भारतीय किसान अक्षम है। सच तो है की भारतीय किसान विश्व के सबसे सक्षम किसानों में से एक है। वास्तव में, भारतीय किसान किस तरह अपनी उत्पादकता को बढ़ा सकता है जबकि उसके पास महज़ दो और तीन एकड़ भूमि हो , तब वह साल दर साल उपज बढ़ाएगा या अपने परिवार का भरण - पोषण करेगा। क्या यह चुकाने वाला तथ्य नहीं है की औसत भारतीय किसान १।४ हेक्टयर कृषि योग्य भूमि पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है वहीं अमेरिका में एक किसान के पास केवल अपनी गाय का पेट भरने के लिए लग्भाक १० हेक्टेयर की जमीन प्राप्त है। किसी उन्नत किसान से यदि आप १।४ हेक्टेयर भूमि पर खेती करने को कहेंगे तो वह आपके ऊपर हंसेगा। वास्तविकता में विकसित देशों में किसान जमीन के छोटे- छोटे टुकड़ों पर खेती करने की बात सोच भी नहीं सकता।
सरकार का यदि यही रवैया रहा तो देश के न जाने कितने और जिले विदर्भ और बुंदेलखंड बन जायेंगे। इसे एक विरोधाभास ही कहा जायेगा की जिस सरकार ने कभी जमींदारी उन्मूलन जैसा कदम उठाया था आज वही सरकार गाँव में फिर से महाजनी व्यवस्था को लागु करने की बात सूच रही है। विदर्भ या बुंदेलखंड या देश के किसी भी कोने में हो रही किसानो की आत्महत्याओं ने ही ग्रामीद इलाकों में क़र्ज़ मिलने के सवाल को प्रमुखता से उभरा है। इसी के फलस्वरूप रिजर्व बैंक ने जोहल कार्य समीति का गठन किया था जिसमे बैंक मुश्किल में जी रहे किसानो की परेशानियों का अध्ययन किया जाना तय है। ज़रा सोचिये कमेटियां बनाकर किसानो का भला किस प्रकार किया जा सकता है ?
रहत पैकेज देकर कितनो दिनों तक किसानो पर एहसान किया जायेगा ? श्री लाल शुक्ल द्वारा लिखे राग दरबारी की एक लाइन है की "सूखा और अकाल सरकारी अफसरों के भाग्य से आता है ।" अधिकारीयों के पास पैकेज के प्रस्ताव बनाने का काम राहत पहुँचाने से बड़ा काम हो गया है।
कुछ बरस पहले तक बुंदेलखंड के बारे में एक शब्द भी ना बोलने वाले आज वह दिन रात रैलियाँ कर रहे है । पैकेज दिलाने की होड़ मची हुई है। लेकिन उसके बाद भी यहाँ की मूल समस्या की जड़ में जाने की ज़रुरत किसी को महसूस नहीं हो रही है । सच तो ये है की हमें खासकर किसानो को राज नेताओं से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए । क्यूंकि अपने रानीतिक स्वार्थ के मेल में सभी पार्टियां एक है । सरकार किसानो की सब्सिडी के बारे में सोचना भी नहीं चाहती है। विकसित देशों के किसान दक्ष इसलिए है क्यूंकि वहा पर उन्हें साल दर साल भारी सब्सिडी मिल जाती है। कपास उत्पादन को ही ले लीजिये अमेरिका में करीब बीस हजार कपास उत्पादक किसान है , जिनके द्वारा हर साल लगभग चार अरब डालर मूल्य का कपास पैदा किया जाता है। ये किसान कपास का उत्पादन बंद ना करे इस लिए अमेरिकी सरकार अपने राजकोष से लगभग साढ़े चार अरब डालर से अधिक सब्सिडी बांटती है। जिसके फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कपास का मूल्य ४५% तक गिर जाता है , नतीजतन विदर्भ के किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती है । भारत के लिए तात्कालिक कदम यही होना चाहिए की आने वाले विश्व व्यापार संगठन के सम्मलेन में विकास संबंधी समझौते के अंतिम रूप लेने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए की ओ ई सी डी के देश अपने यहाँ दी जाने वाली सब्सिडी को पूरी तरह ख़तम करें ।
यदि हमारे राजनेता इतना भी करने में कामयाब नही हो पाते है तो इसे किसानों का और देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा , और हमारे पास केवल राजनैतिक आरोप - प्रत्यारोप के अलावा और कुछ भी नहीं बचेगा । फिर हमारे पास केवल यही कहने को बचेगा -
विनोद दास
" सख्त मिटटी को नरम बनाते -बनाते ,
जिन हाथों में आज पड़ गई है गाँठ
हवा में हिल रहे है उनके हाथ
गेहूं की बालियों की तरह । "